Posted by subadmin1 on 2024-07-26 22:15:24 |
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वेद परब्रह्म परमात्मा का नि:श्वास एवं साक्षात् नारायण का स्वरूप है -वेदो नारायणः साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम
यथा ब्रह्म,जीव एवं प्रकृति अनादि है,उसी प्रकार वेद भी अनादि एवं अपौरुषेय है। इसलिए सर्वात्मक भगवान् रुद्र का वेद मन्त्रों के द्वारा पूजन,अभिषेक,पाठ आदि की महत्ता है।
भगवान् रुद्र की विशिष्टता प्रतिपादित करते हुए उपनिषद् वचन है -सर्वदेवात्मको रुद्रः सर्वे देवा:शिवात्मका:
इस वचनानुसार वेदोक्त साकार ब्रह्म भगवान् रुद्र हैं। भगवान् रुद्र की अभ्यर्थना के उद्देश्य से शुक्लयजुर्वेद का सार तत्व रुद्राष्टाध्यायी का प्रदुर्भाव हुआ।
रु = दुःखम्, द्रावयति इति रुद्रः । रुत् = ज्ञानम्,राति = ददाति इति रुद्रः। रोदयति पापिनः इति वा रुद्र:।
अर्थात् भगवान् रुद्र दुःखनाशक,पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। जिस प्रकार,वृक्ष के जड़ से शाखा पर्यन्त रस, दुग्ध में घी एवं इक्षुदण्ड में मधुरता व्याप्त रहती है,तथापि उससे अलग होने पर विशेष माधुर्य का अनुभव होता है,ठीक उसी प्रकार शुक्लयजुर्वेद रूपी सागर से सार रूपी रुद्राष्टाध्यायी का प्रादुर्भाव हुआ। वाह्य एवं अन्त:करणों को निरुद्ध कर,रुद्रात्मक भाव में अवतरित होकर भगवान् रुद्र की, इस अष्टाध्यायी के मन्त्रों से उपासना करनी चाहिए।
जगत् में अष्टाध्यायी के इन मन्त्रों का पाठ,अभिषेक,जप आदि के द्वारा भगवान् शिव मे उभय भक्ति, दृढ़ अनुराग,धनधान्य की प्रवृद्धि, सन्तति समृद्धि,सद्गति आदि की प्राप्ति होती है। वेदों,स्मृतियों एवं पुराणों में शिवार्चन के साथ ही अभिषेक की महिमा वर्णित है। वायु पुराण का उद्घोष है-
यश्व सागर पर्यन्तां सशैलवनकाननाम् ।
सर्वान्नात्मगुणोपेतां सुवृक्षजलशोभिताम् ॥
दधात् काञ्चनसंयुक्तां भूमिं चौषधिसंयुताम्।
तस्मादप्यधिकं तस्य सकृद् रुद्रजपाद् भवेत्।।
उपरोक्त श्लोक का भाव है- वन पर्वत एवं विभिन्न वृक्षों से आच्छादित विशिष्ट रत्नों से युक्त पृथ्वी का जो दान करता है, उस पुण्य से भी अधिक एक बार रुद्राभिषेक करने का पुण्य है।
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